Tuesday, March 25, 2008

ये किस मुकाम पर हयात मुझको ले के आ गई

ये किस मुकाम पर हयात मुझको ले के आ गई

हर कोई अपनी जिन्दगी के तमाम मुकाम तय करता है, हर एक प्रत्येक मुकाम उसे कुछ न कुछ ऊंचाई दे कर जाते है, पर ऐसा भी होता है, कि हम अपने आपको उस मुकाम पर पाते है , कि ख़ुशी या ग़म सब अपने इख्तियार से बाहर नज़र आता है । क्या ये हमारी आदमियत कि सीमाये है, या इस्वर का दिशानिर्देश कि बस यही तक यही तक हमारा बस है हम पर ।वक़्त रुकता नही और हम भी वक़्त के साथ पल प्रतिपल बदलते रहते है , पर यकीं नही होता, करते भी नही। जिसके नतीजे हम ढेर सारी तस्वीरों को अपने दिमाग मी बसा लेते है , बेशक हम रूबरू थे कुछ पलो के आज से दस बीस साल पहले पर वे पल एक तस्वीर कि तरह हमारे दिमाग मे चस्पा हो जाते है और हम लेकर घूमते रहते है उन तस्वीरों को अपने दिमाग मे अपने पूर्वाग्रहों के साथ। और अरसे बाद भी हमारा दिमाग वही खोजता है । यह स्वीकार करना ही चाहिऐ कि वक़्त और व्यक्ति दोनो बदलते रहते है।हा ये अलग बात है कि आदमी का बदलना जियादा कस्ट देता है